
जिस दिन वंदेमातरम देश की शिराओं में दौड़ने लगेगा उसी दिन सभी के मुगालते खत्म हो जायेंगे, जिस दिन लोग कार्पोरेट, सत्ता और संविधान के भीतर देश की मौजूदा परिस्थितियों को समझ जायेंगे उस दिन वंदेमातरम गान संसद में नहीं बीच चौराहे पर होगा
"हे माँ तेरी धरती जल से भरपूर है। फल - फूल से लदी हुई है। मलय पर्वत की ठंड़ी सुगंध से शीतल है। खेतों में लहलहाती फसल से आच्छादित है। तेरी रातें चांदनी से नहा कर पुलकित हो उठती है और वृक्ष खिले फूलों और पत्तों से सजे रहते हैं। तू मुस्कान बिखेरने वाली, मधुर वाणी बोलने वाली, सुख देने वाली है। तेरे करोड़ों पुत्रों के गले से उठी आवाज गगन में गूंजती है और करोड़ों भुजाओं में तलवारें और अस्त्र-शस्त्र चमकते हैं। कौन कहता है कि तू निर्बल है। माँ तू अपार शक्ति है। संकट से पार लगाने वाली है और शत्रुओं का नाश करने वाली है। तू ही ज्ञान है, धर्म है, हृदय है और तू ही जीवन का सार है। तू प्राण है। भुजाओं की शक्ति है और हृदय की भक्ति है। हम तुझे ही पूजते हैं। हे माँ तू ही दशों अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाली माॅं दुर्गा है। कमल के आसन पर विराजमान माॅं लक्ष्मी है। तू माॅं सरस्वती है। हे निर्मल माॅं मैं तुझे प्रणाम करता हूं" । वंदेमातरम का यह हिन्दी भावानुवाद श्री अरविंद घोष ने किया है जिनकी पहचान एक योगी और दार्शनिक के तौर पर है। यानी भारत की ताकत है, भारत की भूमि की ताकत है, देश के भीतर समाये हुए प्राकृतिक परिस्थितियों से जो उर्जा मिलती है लोगों को।
लेकिन इस दौर में सब कुछ खत्म, ध्वस्त कर दिया गया है। सरकार न शुध्द पानी दे पा रही है न वायु। न ही जमीन की उर्बरा दे पाने की स्थिति में है न ही किसानों के साथ खड़ी हो पा रही है। न ही संघर्ष के आसरे देश के भीतर उठते हुए सवालों का जवाब दे पा रही है। संसद के गलियारों में सिर्फ उन्हीं मुद्दों को चर्चा के क्यों खोजा जाता है जो चर्चा राजनीतिक तौर पर राजनीतिक दायरे में देश की जनता को लाकर खड़ा करना चाहती है। यानी भारत की संसद के कोई सरोकार देश के साथ हैं ही नहीं। संसद में बैठे सांसदों को जनता चुनती जरूर है तो उस पर भी कब्जा हो गया है। पता नहीं वोट गिने भी जाते हैं या नहीं। मगर सांसदों का देश से तो छोड़िए अपने ही संसदीय क्षेत्र की उस जनता से जो उसे वोट देती है उससे भी कोई जुड़ाव नहीं रहता है। हाल ही में जब देश का आम नागरिक हवाई यात्रा को लेकर परेशान है। सांसदों के कानों में जूं तक नहीं रेंग रही है क्योंकि उनकी हवाई यात्रा के लिए तो 24 × 7 चार्टर प्लेन मौजूद रहते हैं। सबसे ज्यादा दिल्ली और मुंबई में उसके बाद हैदराबाद और विशाखापट्टनम का नम्बर आता है। देश के राज्यों की राजधानी में भी व्यवस्था रहती ही है चार्टर प्लेन की। भारत के भीतर तकरीबन 17 हज़ार चार्टर प्लेन मौजूद हैं। राजनीति को उड़ान भरने की व्यवस्था है तो फिर क्यों कर सरोकार रखें आम आदमी से। वंदेमातरम की चर्चा के बीच में हवाई जहाज का जिक्र क्यों ? हवाई जहाज का जिक्र इसलिए कि जेब में पूंजी रखे हुए लोग भी तो समझें कि उनसे भी देश की सत्ता के कोई सरोकार नहीं है।

सत्ता जब वंदेमातरम पर चर्चा कर रही है तो उस चर्चा के साथ वही राजनीति हिलोरें मार रही है जिस राजनीति के आसरे उसको सत्ता तक पहुंचने का रास्ता बन सके। इसलिए कोई उसमें बंगाल में होने वाले चुनाव की राजनीति को खोज रहा है। कोई सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ रहा है। कोई नेशनलिज्म जगाना चाहता है। कोई देश के मूलभूत मुद्दों से देश को ही दरकिनार करने की कोशिश कर रहा है। तो कोई अतीत के नायकों को खारिज कर रहा है। कोई अतीत की उन परिस्थितियों से मौजूदा वक्त की परिस्थितियों को यह कह कर बेहतर बताने से हिचक नहीं रहा है कि असल रामराज्य तो अभी है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद के भीतर वंदेमातरम पर हो रही चर्चा की शुरुआत करते हुए तकरीबन एक घंटे तक भाषण दिया। उसमें 121 बार वंदेमातरम, 50 बार कंट्री याने देश शब्द, 35 मर्तबा भारत शब्द, 34 बार अंग्रेज शब्द, 17 बार बंगाल का जिक्र, 10 बार बंकिम चंद्र चटर्जी का नाम, 7 बार जवाहरलाल नेहरू का नाम, 6 मर्तबा महात्मा गांधी का नाम लिया गया। उस भाषण में 5 बार मुस्लिम लीग, 3 बार जिन्ना, 3 बार संविधान का का नाम भी लिया गया। 2 मर्तबा मुसलमान, 3 बार तुष्टीकरण, 13 मर्तबा कांग्रेस का भी जिक्र किया गया लेकिन एक बार भी जनसंघ, संघ यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम नहीं लिया गया। आखिर क्यों ? जबकि भाषण तो भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दे रहे थे जो खुद संघ के स्वयंसेवक, प्रचारक रह चुके हैं आज भी उनका संघ से जुड़ाव बरकरार है। देश के भीतर तिरंगा के साथ ही भगवा भी लहराते हैं। अपने हर भाषण के बाद वंदे शब्द का इस्तेमाल उसी तर्ज पर करते हैं जैसे कोई स्वयंसेवक भाषण देता है।
वंदेमातरम पर चर्चा के दौरान पूरे सदन (जिसमें आसंदी भी शामिल है) ने अपनी अज्ञानता, अपरिपक्वता का परिचय दिया है। सत्ता पक्ष ने तो आज जिस तरह से वंदेमातरम को अपमानित किया है उसकी मिशाल शायद ही मिले। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस समय सदन में प्रवेश कर रहे थे और सांसद फूहड़ता के साथ वंदेमातरम का नारा लगा रहे थे। वंदेमातरम का गायन किया जाता है और जब - जब वंदेमातरम का गायन होता है या किया गया है चाहे वह 1896 में कोलकाता में हुआ कांग्रेस का अधिवेशन हो जिसमें रविंद्रनाथ टैगोर ने गायन किया था या फिर संविधान सभा की शुरुआत रही हो तब सभी खामोशी के साथ खड़े होकर गायन करते थे लेकिन सत्तापक्ष इतना अहंकारी हो गया कि उसने वंदेमातरम को नारे में तब्दील कर दिया है । विपक्ष हूट करता रहा और आसंदी एक जरखरीद गुलाम की तरह चुपचाप बैठी रही। संविधान सभा की भाषा, संविधान सभा के भीतर तर्क, उसमें होने वाली बहस और उस बहस के बाद बने संविधान (जिसमें भारत के हर प्रांत के लोगों की मौजूदगी थी) जिसमें यह मानकर चला गया कि देश का एक संविधान होगा। उस संविधान के आसरे सरकारें चलेंगी। उस सरकार के हिस्से में कौन सा काम है निर्धारित किया गया। पार्लियामेंट को कैसे चलाना है यह भी बताया गया। लेकिन उसमें इस बात का जिक्र नहीं किया गया क्योंकि किसी ने भी नहीं सोचा था कि कभी सत्ता में ऐसे लोग भी आयेंगे जो देश के भीतर आजादी से पहले लिखी गई रचनाओं को ही विवादित बना देंगे। 1950 में संविधान को लागू किया गया। किसने सोचा था कि देश का हर संवैधानिक संस्थान राजनीतिक मुट्ठी में इस तरीके से समा जायेगा जहां पर देश को चलाने के लिए जो संसद का काम है उसे ही भूल जायेंगे। यानी गवर्नेंस का मतलब क्या होता है, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का क्या मतलब है इस संसद को पता नहीं है। संसद और सांसद को यह भी पता नहीं है कि जिन बातों का जिक्र वो कर रहे हैं उन बातों को लागू कराना भी उनकी ही जिम्मेदारी है।

वंदेमातरम 1875 में लिखा गया उसके बाद आनंदमठ नामक उपन्यास की रचना की गई। जिसमें वंदेमातरम को डाल कर 1882 में छापा गया। इसके बाद बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की यह रचना एक कालजयी उपन्यास के तौर पर भारत के मानस पटल पर छा गया। तो जाहिर है कि वंदेमातरम भी भारत के जहन में आया। रविंद्रनाथ टैगोर ने 1896 में कोलकाता में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में इसका गायन किया था। उसके बाद 1947 में संविधान सभा की बैठक की शुरुआत ही सुचेता कृपलानी के वंदेमातरम गायन से हुई थी।1950 में संविधान लागू होने पर वंदेमातरम को राष्ट्रीय गीत बनाया गया और इसे राष्ट्रीय गान जन-गण-मन के समानांतर दर्जा दिया गया। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने वंदेमातरम की रचना कर जिस भारत की कल्पना की, जिसका गायन करते हुए रविंद्रनाथ टैगोर ने सोचा समझा, जिस गीत के आसरे संविधान सभा ने संविधान बनाया और 2025 में सत्ताधारी पार्टी इस बात का जिक्र कर रही है कि उस दौर के नायक आज के दौर के खलनायक हैं तो यह मान कर चलिए कि इससे ज्यादा विभत्स कुछ हो नहीं सकता है। वंदेमातरम की रचना के 150 बरस होने पर संसद के भीतर जो चर्चा हो रही है उसका एक सच यह है कि 100 बरस होने पर देश में इमर्जेंसी लगाकर संविधान को हाशिये पर धकेल दिया गया था। दूसरा सच यह है कि 109 बरस में देश के भीतर सिख्खों का नरसंहार हुआ था तो 127 बरस होने पर गुजरात में भी नरसंहार हुआ था।
किस - किस पत्थर को उठाकर उसके नीचे झांक कर देखिएगा। क्या वंदेमातरम को याद करते हुए मौजूदा देश की त्रासदी या उसके घाव से रिसते हुए खून और पस (मवाद) को देख कर शांति महसूस की जा सकती है और अगर की जा सकती है तो फिर नरपिशाच और हममें कोई अंतर नहीं है। मगर मौजूदा राजनीति की यही विधा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वंदेमातरम के पीछे खड़े होकर अपनी राजनीति साधने के लिए जिस तरीके से एक चौथाई सच और तीन चौथाई झूठ को परोसा उससे एक बार फिर उनकी ओछी राजनीति नग्न हो गई। विपक्ष को खुलकर मोदी, बीजेपी और संघ की कलई खोलने का मौका दे दिया। अखिलेश यादव ने तो खुलकर कहा कि आप (बीजेपी) राष्ट्रवादी नहीं राष्ट्रविवादित हैं। प्रियंका गांधी ने तो यहां तक कहा कि जिस नेहरू को आप खलनायक कह रहे हैं वो जितने साल (12) से आप सत्ता में हैं उतने साल उन्होंने देश की आजादी के आंदोलन में भाग लेते हुए जेल में बिताए हैं और आजादी के बाद 17 साल तक प्रधानमंत्री रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वंदेमातरम की आड़ में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का एक ऐसा खतरनाक खेल खेलना शुरू किया है जहां अब ध्रुवीकरण करने के लिए हिन्दू - मुसलमान की जगह राष्ट्रवाद का नाम लिया जा रहा है। संस्थागत तरीके से इतिहास को बदलने के लिए झूठ का मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश की जा रही है। एसआईआर के काम में लगे बीएलओ की मौतें, इंडिगो संकट, दिल्ली में हुआ आतंकी हमला, प्रदूषण, रूपये का लगातार हो रहा अवमूल्यन, अंतरराष्ट्रीय कूटनीति, मंहगाई, बेरोजगारी, महिला सुरक्षा, किसान - मजदूर हित, युवाओं में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति आदि ऐसे ढ़रों मुद्दे हैं जिन पर संसद के भीतर बहस होनी चाहिए। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संसद के भीतर 150 बरस पहले लिखे गये गीत वंदेमातरम पर चर्चा करा रहे हैं। देखा जाय तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह दुस्साहस अकारण नहीं है। वे तो हरहाल में उन ताकतों से मुक्त होना चाहते हैं जिनकी बदौलत संविधान सुरक्षित है, बचा हुआ है। क्योंकि यही वह संविधान है जो देश में तानाशाही कायम नहीं होने दे रहा है। लोगों को हिम्मत देता है कि अगर उन्हें सरकार का कोई फैसला पसंद न आये या उसमें उन्हें अपना हित खतरे में पड़ता हुआ दिखता है तो उसके खिलाफ आवाज उठायें।

संविधान की दी हुई ताकत की बदौलत ही किसानों ने मोदी सरकार द्वारा लाये गए किसान विरोधी कानूनों का विरोध किया था और मोदी सत्ता को तीनों कृषि कानून वापस लेने मजबूर होना पड़ा था। हाल ही में लाये जा रहे संचार साथी ऐप प्री - इंस्टाल करने का फैसला टालना पड़ गया। वक्फ़ संशोधन अधिनियम को संसदीय समिति को भेजना पड़ा। मतलब मोदी सरकार को अपने फैसलों से पीछे हटना पड़ रहा है और यही बात उसे खटक रही है। वंदेमातरम की चर्चा में पीएम मोदी ने जिस तरह का भाषण दिया वह वंदेमातरम का मुखौटा लगाकर देश को नुकसान पहुंचाने वाली ताकतों को बढ़ावा देने वाला है। लगता है कि नरेन्द्र मोदी उसी लकीर को फिर से खींचने की कोशिश कर रहे हैं जो कभी उनके पुरखों यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा ने खींची थी। आजादी की लड़ाई वाले इतिहास में तो कहीं भी इस बात के सबूत नहीं मिलते कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा ने आजादी की लड़ाई में कोई योगदान दिया हो, बल्कि इस बात के सबूत जरूर मिलते हैं कि वी डी सावरकर ने सजा से बचने के लिए अंग्रेजों से माफी मांगी थी और सेवा का वचन दिया था। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग अंग्रेजों की मुखबिरी किया करते थे। जनता को अंग्रेजी फौज में भर्ती होने के लिए उकसाते थे।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने लंबे भाषण में यह तो बताया कि जवाहरलाल नेहरू मुस्लिम लीग के सामने झुकते थे लेकिन यह नहीं बताया कि 1937 में ब्रिटिश इंडिया के कुल 11 राज्यों के हुए चुनाव में मुस्लिम लीग एक भी राज्य में नहीं जीत पाई जबकि कांग्रेस ने बहुमत के साथ 7 राज्यों में सरकार बनाई थी । मोदी ने यह भी नहीं बताया कि 1941-42 में सावरकर की हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर तीन राज्यों में सरकार बनाई थी। मोदी ने इस बात का भी जिक्र नहीं किया कि जब देश आजाद हुआ तो 15 अगस्त 1947 की आधी रात को संविधान सभा में श्रीमती सुचेता कृपलानी ने वंदेमातरम का गायन किया था। 24 जनवरी 1950 के दिन वंदेमातरम को राष्ट्रगीत घोषित किया गया था तब कांग्रेस की सरकार थी और जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे। कांग्रेस के अधिवेशन में आज भी वंदेमातरम का गायन होता है। यह भला मोदी अपने मुंह से कैसे बोल सकते थे। मगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रह चुके हैं और बतौर स्वयंसेवक अभी संघ से उनका जुड़ाव है तो वे अपने भाषण में इस बात का खुलासा तो कर ही सकते थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आजादी के पहले और आजादी के बाद कई दशकों तक तिरंगे से परहेज क्यों किया तथा वंदेमातरम को अपना गीत क्यों नहीं बनाया। यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सही मायने में पूरी ईमानदारी के साथ इतिहास को सुधारने की मंशा रखते हैं तो उसकी शुरुआत उन्हें अपने मातृ - पितृ संगठनों से करनी चाहिए। मगर नरेन्द्र मोदी का असल मकसद तो निकट भविष्य में होने वाले बंगाल विधानसभा चुनाव को साधने का है। हर तरह की कोशिश करने के बाद भी बंगाल सध नहीं रहा है। वंदेमातरम के तार बंगाल से जुड़ते हैं। पिछले चुनावों में सुभाष चंद्र बोस को भुनाने के बाद रविन्द्र नाथ टैगोर की तरह दाढ़ी बढ़ाकर चुनाव प्रचार किया लेकिन यह भूल गये कि रविन्द्र नाथ टैगोर की पहचान उनकी दाढ़ी नहीं उनकी सोच और लेखनी है। इस बार बंकिम चंद्र और उनकी अमर रचना वंदेमातरम पर दांव लगाया जा रहा है। जो कि एक खतरनाक खेल की शुरुआत है और इससे देश को कहीं ज्यादा गहरे जख्म मिलेंगे।
आज के दौर में न तो संसद न ही सांसद लोगों से जुड़े हुए दिखाई दे रहे हैं। देश की जीडीपी से ज्यादा ग्रोथ कार्पोरेटस् की हो रही है, सांसदों की ग्रोथ भी कार्पोरेटस् से कम नहीं है। सत्तापक्ष हो या विपक्ष सबने देश को जी भर कर लूटा है और यह क्रम निरंतर जारी है। 2014 के पहले करप्शन अंडर टेबिल था 2014 के बाद से करप्शन को सिस्टम का हिस्सा बना दिया गया। 2014 के पहले जांच ऐजेसियां प्रीमियर कहलाती थी लेकिन माना जाता था कि वे सरकार पर आंच नहीं आने देंगी लेकिन 2014 के बाद यही प्रीमियर जांच ऐजेसियां केवल और केवल सरकार को बनाये रखने के लिए काम करने लगी हैं। 2014 के बाद देश के चारों पिलर न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और मीडिया पूरी तरह धराशाई हो चुके हैं। भारत का मतलब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कर दिया गया है। वंदेमातरम की पहचान को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश की नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश करते हुए अतीत के दौर की परिस्थितियों को उठाकर ये कहने चूक नहीं रहे हैं कि अगर ये किया होता, वो किया होता, तो ऐसा हो जाता, वैसा हो जाता।
विपक्ष मुगालते में है कि देश के भीतर जेन-जी जाग जायेगा। जेन-जी इस मुगालते में है कि विपक्ष राजनीतिक समाधान कर देगा। देश का वोटर इस मुगालते में है कि उसके वोट के जरिए सत्ता परिवर्तन हो जायेगा। देश की सत्ता भी मुगालते में है कि जब सब कुछ उसकी मुट्ठी में है तो फिर कौन हिम्मत करेगा। लेकिन जिस दिन वंदेमातरम के गीत में लिखे हुए शब्द देश की शिराओं में दौड़ने लगेगा उस दिन किसी को कोई मुगालता नहीं रहेगा। वंदेमातरम गीत के बीच का पैरा बहुत साफ तौर पर कहता है "कौन कहता है तू निर्बल है माँ, तू अपार शक्ति है, तू संकट से पार लगाने वाली है और शत्रुओं का नाश करने वाली है, तू ही ज्ञान है, धर्म है, हृदय में है, तू ही जीवन का सार है, तू प्राण है, भुजाओं की शक्ति है और हृदय की भक्ति है, हम तुझे ही पूजते हैं माँ। और उस माँ का मतलब पार्लियामेंट नहीं है। उस माँ का मतलब सत्ता नहीं है। उस माँ का मतलब चुने जाने वाला प्रतिनिधि नहीं है। उस माँ का मतलब प्रधानमंत्री भी नहीं है। उस माँ का मतलब वही भारत है जिसके भीतर मौजूदा वक्त में लोगों की आय देश की आय के सामने कहीं टिकती ही नहीं है। दुनिया के भीतर जिन लोगों की आय सबसे कम है उस कतार में भारत के 82 फीसदी लोग खड़े हैं यानी 100 करोड़ से भी ज्यादा, दुनिया के सबसे रईस लोगों की कतार में भारत के 50 लोग खड़े हैं। जिस दिन लोग कार्पोरेट, सत्ता और संविधान के भीतर झांकते हुए देश की मौजूदा परिस्थितियों को समझ जायेंगे उस दिन वंदेमातरम का गान होगा और लोग खामोशी के साथ खड़े होकर सुनेंगे और यह संसद के भीतर नहीं बीच चौराहे पर होगा।

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार


















































